Varah Dwadashi vrat katha vidhi.(वाराह द्वादशी व्रत कथा विधि्)

वाराह द्वादशी महात्मय (Varah Dwadsi mahatmya)
जगत के कल्याण हेतु जो लीलाधारी भगवान अनेकानेक अवतार लेते हैं इन्हीं भगवान विष्णु के तृतीय अवतार वराह की पूजा माघ शुक्ल द्वादशी के दिन की जाती है जो वराह द्वादशी के नाम से जानी जाती है (Magha Shukla Dwadashi vrat). वराह भगवान का यह व्रत सुख, सम्पत्ति दायक एवं कल्याणकारी है. जो श्रद्धालु भक्त वराह भगवान के नाम से माघ शुक्ल द्वादशी के दिन व्रत रखते हैं उनके सोये हुए भाग्य को भगवान जागृत कर देते हैं.
वाराह द्वादशी कथा (Varah Dwadsi Katha)
सुखसागर कथा के अनुसार जब ब्रह्मा सृष्टि की रचना कर रहे थे उस समय मनु ने ब्रह्मा जी से कहा मनुष्य के निवास के लिए स्थान प्रदान कीजिए. ब्रह्मा जी के नाक से उस समय वराह रूप में भगवान विष्णु प्रकट हुए. विशालकाय और पराक्रमी वराह भगवान छलांग लगाकर अथाह समुद्र में कूद पड़े. दैत्यों द्वारा जहां पृथ्वी को छुपाकर रखा गया था वहां से अपने दाढ़ों पर पृथ्वी को उठाकर तीव्र गति से भगवन सागर तल से Šৠपर आ रहे थे.
रसातल से जब भगवान पृथ्वी लेकर Šৠपर आ रहे थे उस समय हिरण्यकश्यपु का भाई हिरण्याक्ष रास्ते में खड़ा हो गया और उन्हें युद्ध के लिए ललकारने लगा. उस समय हिरण्याक्ष के अपशब्द पर वराह रूपी विष्णु को क्रोध आया परंतु क्रोध पर काबू रखते हुए भगवान वाराह अत्यंत तीव्र गति से उस ओर आगे बढ़ते रहे थे जहां पृथ्वी को स्थित करना था. पृथ्वी को स्थापित करने के पश्चात भगवान हिरण्याक्ष से युद्ध करने लगे और देखते देखते हिरण्याक्ष के प्राण पखेरू उड़ गये.
वाराह द्वादशी व्रत विधान (Varah Dwadshi Vrat Vidhan)
जो भगवत् भक्त वराह द्वादशी का व्रत रखते हैं उन्हें द्वादशी तिथि को संकल्प करके एक कलश में भगवान वराह की सोने की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए. भगवान की स्थापना करने के पश्चात विधि विधान सहित षोडषोपचार से भगवान वराह की पूजा करनी चाहिए. पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में जगारण करके भगवान विष्णु के अवतारों की कथा कहनी और सुननी चाहिए.
त्रयोदशी के दिन कलश मे स्थित वराह भगवान की पूजा करने के बाद, विसर्जन करना चाहिए. विसर्जन के पश्चात उस स्वर्ण प्रतिमा को ब्रह्मण आचार्य को दान देना चाहिए.
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